।।गोपी गीत।।
कस्तूरी तिलकं ललाट पटले वक्ष: स्थले कौस्तुभं।
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणु: करे कंकणं॥
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणु: करे कंकणं॥
भावार्थ:-
हे श्रीकृष्ण!
आपके मस्तक
पर कस्तूरी
तिलक सुशोभित
है। आपके
वक्ष पर
देदीप्यमान कौस्तुभ
मणि विराजित
है, आपने
नाक में
सुंदर मोती
पहना हुआ
है, आपके
हाथ में
बांसुरी है
और कलाई
में आपने
कंगन धारण
किया हुआ
है।
सर्वांगे हरि चन्दनं सुललितं कंठे च मुक्तावली।
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि:॥
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि:॥
भावार्थ:-
हे हरि!
आपकी सम्पूर्ण
देह पर
सुगन्धित चंदन
लगा हुआ
है और
सुंदर कंठ
मुक्ताहार से
विभूषित है,
आप सेवारत
गोपियों के
मुक्ति प्रदाता
हैं, हे
गोपाल! आप
सर्व सौंदर्य
पूर्ण हैं,
आपकी जय
हो।
जयति तेऽधिकं जन्मना ब्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥ (१)
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥ (१)
भावार्थ:- हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ गयी है,
तभी तो सौन्दर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोड़कर यहाँ की सेवा के लिये नित्य निरन्तर यहाँ निवास करने लगी हैं। हे प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपीयाँ जिन्होने तुम्हारे चरणों में ही
अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वन
मे भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं। (१)
शरदुदाशये साधुजातसत् सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥ (२)
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥ (२)
भावार्थ:- हे हमारे प्रेम पूरित हृदय के स्वामी! हम तुम्हारे बिना मोल की
दासी हैं, तुम शरद ऋतु के
सुन्दर जलाशय में से
चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो। हे प्रिय! अस्त्रों से हत्या करना ही वध
होता है, क्या इन नेत्रों से मारना हमारा वध करना नहीं है। (२)
विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद् वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद् विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥ (३)
वृषमयात्मजाद् विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥ (३)
भावार्थ:- हे पुरुष शिरोमणि! यमुना जी के
विषैले जल से
होने वाली मृत्यु, अज़गर के रूप में खाने वाला अधासुर, इन्द्र की बर्षा, आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर
सब प्रकार भयों से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है। (३)
न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥ (४)
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥ (४)
भावार्थ:- हे हमारे परम-सखा! तुम केवल यशोदा के पुत्र ही नहीं हो, तुम तो समस्त शरीर धारियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से
रहने वाले साक्षी हो। हे
सखा! ब्रह्मा जी की
प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिये तुम यदुवंश में प्रकट हुए हो। (४)
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥ (५)
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥ (५)
भावार्थ:- हे यदुवंश शिरोमणि! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे रहते हो, जो
लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हे तुम्हारे करकमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं। सबकी लालसा-अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी का
हाथ पकड़ा है। हे
प्रिय! वही करकमल हमारे सिर पर
रख दो। (५)
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय॥ (६)
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय॥ (६)
भावार्थ:- हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम तो
सभी ब्रजवासियों के दुखों को दूर करने वाले हो, तुम्हारी मन्द-मन्द मुस्कान की एक
झलक ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान मद को
चूर-चूर कर
देने के लिये पर्याप्त है। हे
प्यारे सखा! हम
से रूठो मत, प्रेम करो, हम तो
तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों में निछावर हैं, हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर साँवला मुखकमल दिखलाओ। (६)
प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥ (७)
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥ (७)
भावार्थ:- तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणीयों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं, लक्ष्मीजी सौन्दर्य और माधुर्य की खान हैं, वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती हैं, वह
कोमल चरण बछड़ों के पीछे-पीछे चल रहे हैं, उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था, तुम्हारी विरह की वेदना से हृदय संतप्त हो रहा है, तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है। हे प्रियतम! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदय की आग्नि को शान्त कर दो। (७)
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥ (८)
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥ (८)
भावार्थ:- हे कमलनयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है, तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिये अमृत से बढ़कर मधुर हैं, बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रहीं है। हे दानवीर! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी
मधुर अधर-रस
पिलाकर हमें जीवन दान दो। (८)
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥ (९)
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥ (९)
भावार्थ:- हे हमारे स्वामी! तुम्हारी कथा अमृत स्वरूप हैं, जो
विरह से पीड़ित लोगों के लिये तो वह जीवन को शीतलता प्रदान करने वाली हैं, ज्ञानीयों, महात्माओं, भक्त कवियों ने तुम्हारी लीलाओं का गुणगान किया है, जो
सारे पाप-ताप को मिटाने वाली है। जिसके सुनने मात्र से परम-मंगल एवं परम-कल्याण का दान देने वाली है, तुम्हारी लीला-कथा परम-सुन्दर, परम-मधुर और कभी न
समाप्त होने वाली हैं, जो
तुम्हारी लीला का गान करते हैं, वह
लोग वास्तव में मत्यु-लोक में सबसे बड़े दानी हैं। (९)
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम्।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि॥ (१०)
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि॥ (१०)
भावार्थ:- हे हमारे प्यारे! एक दिन वह था, तुम्हारी प्रेम हँसी और चितवन तथा तुम्हारी विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं का ध्यान करके हम आनन्द में मग्न हो जाया करतीं थी। हे
हमारे कपटी मित्र! उन सब
का ध्यान करना भी मंगलदायक है, उसके बाद तुमने एकान्त में हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ की और
प्रेम की बातें की, अब वह
सब बातें याद आकर हमारे मन को
क्षुब्ध कर रही हैं। (१०)
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति॥ (११)
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति॥ (११)
भावार्थ:- हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर हैं, जब
तुम गौओं को चराने के लिये ब्रज से निकलते हो तब यह
सोचकर कि तुम्हारे युगल चरण कंकड़, तिनके, घास, और
काँटे चुभने से कष्ट पाते होंगे तो हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है। (११)
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥ (१२)
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥ (१२)
भावार्थ:- हे हमारे वीर प्रियतम! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर
लौटते हो तो
हम देखतीं हैं, कि
तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रहीं है और गौओं के खुर से
उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है। तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखाकर हमारे हृदय को प्रेम-पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो। (१२)
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्॥ (१३)
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्॥ (१३)
भावार्थ:- हे प्रियतम! तुम ही हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली हैं, इन
चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी ब्याधायें शान्त हो जाती हैं। हे प्यारे! तुम अपने उन परम-कल्याण स्वरूप चरणकमल हमारे वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदय की व्यथा को शान्त कर दो। (१३)
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥ (१४)
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥ (१४)
भावार्थ:- हे वीर शिरोमणि! आपका अधरामृत तुम्हारे स्मरण को बढ़ाने वाला है, सभी शोक-सन्ताप को नष्ट करने वाला है, यह
बाँसुरी तुम्हारे होठों से चुम्बित होकर तुम्हारा गुणगान करने लगती है। जिन्होने इस अधरामृत को एक
बार भी पी
लिया तो उन
लोगों को अन्य किसी से आसक्तियों का स्मरण नहीं रहता है, तुम अपना वही अधरामृत हम सभी को
वितरित कर दो। (१४)
अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्॥ (१५)
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्॥ (१५)
भावार्थ:- हे हमारे प्यारे! दिन के
समय तुम वन
में विहार करने चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है, और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम
देखती हैं, उस
समय हमारी पलकों का गिरना हमारे लिये अत्यन्त कष्टकारी होता है, तब
ऎसा महसूस होता है कि
इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है। (१५)
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥ (१६)
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥ (१६)
भावार्थ:- हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई-बन्धु और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी हर चाल को
जानती हैं, हर
संकेत को समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से
मोहित होकर यहाँ आयी हैं। हे कपटी! इसप्रकार रात्रि को आयी हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड़ सकता है। (१६)
रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥ (१७)
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥ (१७)
भावार्थ:- हे प्यारे! एकान्त में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बातें किया करते थे, हँसी-मजाक करके हमें छेड़ते थे, तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्करा देते थे। तुम्हारा विशाल वक्ष:स्थल, जिस पर
लक्ष्मीजी नित्य निवास करती हैं। हे प्रिय! तब से अब
तक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा
रही है और
हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यधिक आसक्त होता जा रहा है। (१७)
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम्।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥ (१८)
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥ (१८)
भावार्थ:- हे प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुख-ताप को
नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर
रहा है, कुछ ऎसी औषधि प्रदान करो जो
तुम्हारे भक्तजनों के हृदय-रोग को सदा-सदा के लिये मिटा दे। (१८)
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥ (१९)
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥ (१९)
भावार्थ:- हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल हैं, उन्हे हम अपने कठोर स्तनों पर भी
डरते-डरते बहुत धीरे से रखती हैं, जिससे आपके कोमल चरणों में कहीं चोट न लग
जाये, उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे आदि की
चोट लगने से आपके चरणों मे पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही
अचेत होती जा रही हैं। हे प्यारे श्यामसुन्दर! हे हमारे प्राणनाथ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम
तुम्हारे लिये ही जी
रहीं है, हम
सिर्फ तुम्हारी ही हैं। (१९)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूवाँधेँ रासक्रीडायां ||
गोपीगीतं नामैकत्रिंशोडध्यायः।।
॥ हरि ॐ तत सत ॥
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