गोपी - गीत परिचय
श्रीमद भागवत में दशम स्कंध में गोपी
गीत आता है जब भगवान शरद पूर्णिमा की रात में रास लीला का प्रारम्भ करते है तो कुछ
समय बाद गोपियों को मान हो जाता है कि इस जगत में हमारा भाग्य ही सबसे श्रेष्ठ है
भगवान उनके मन की बात समझकर बीच रास से अंतर्ध्यान हो जाते है, व्यक्ति केवल दो ही
जगह जा सकता है, एक है संसार और दूसरा है आध्यात्म या भगवान. जैसे ही भगवान से
हटकर गोपियों का मन अपने ही भाग्य पर चला गया यहाँ भगवान बता रहे है कि जैसे ही
भक्त मुझसे मन हटाता है वैसे ही मै चला जाता है.
भगवान सहसा अंतर्धान हो गये. उन्हें न
देखकर व्रजयुवतियो के हदय में विरह की ज्वाला जलने लगी - भगवान की मदोन्मत्त चाल,
प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओ
और श्रृंगाररस की भाव-भंगियो ने उनके चित्त को चुरा लिया था. वे प्रेम की मतवाली
गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयी और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं और लीलाओ का
अनुकरण करने लगी. अपने प्रियतम की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन- बोलन आदि मे
श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयी.
उनके शरीर में भी वही गति-मति वही
भाव-भंगिमा उतर आयी, वे अपने को सर्वथा भूलकर ‘श्रीकृष्ण
स्वरुप’ हो गयी. ‘मै श्रीकृष्ण ही हूँ’ इस प्रकार कहने लगी वे सब परस्पर
मिलकर ऊँचे स्वर से उन्ही के गुणों का गान करने लगी. मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन
में एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगी. वे पेड-पौधों से
उनका पता पूछने लगी – हे पीपल, बरगद! नंदनंदन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुस्कान और
चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये है क्या तुमने उन्हें देखा है ?
जब भगवान उन्हें कही नहीं मिले
तो श्रीकृष्ण के ध्यान में डूबी गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर रमणरेती में लौट
आयी और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगी.सबने एक साथ, एक ही स्वर
में, 'गोपी-गीत' गाया.
जब सब गोपियों के मन की दशा एक जैसी
ही थी, सबके भाव की एक ही दशा थी, तब उन करोड़ो गोपियों के मुँह से एक ही गीत, एक
साथ निकला,इसमें आश्चर्य कैसा ? गोपी गीत में उन्नीस श्लोक है. गोपी गीत
`कनक मंजरी’ छंद में है.
ये गोपी गीत बड़ा
ही विलक्षण ,आलौकिक है जो नित्य इस गोपी गीत पाठ करता है भगवान श्री कृष्ण जी में
उसका प्रेम होता है और उसे उनकी अनुभूति होती है.
भगवान के
अन्तर्धान होने का एक कारण और था भगवान गोपियों के प्रेम को जगत को दिखाना चाहते थे
कि गोपियाँ मुझसे कितना प्रेम करती है.
"जय जय
श्री राधे"
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गोपी गीत
यह शरीर साधन है धाम का ,मुक्ति का !यदि मनुष्य शरीर पाकर भी जीवन न संवर सका तो इसमे न काल का दोष है ,न कर्म का और न ईश्वर का । सब दोष स्वयं का है !
एक बार एक भक्त ने कहा -प्रभु !मैं आपको एक बार जान लूँ बस फ़िर मैं मर जाना चाहता हूँ ।
भगवान् ने कहा -अगर तू मुझे जान लेगा तो मरेगा ही नही । जिसने मुझे जाना वो अमर हो गया ।
मैं यहाँ गोपी प्रेम की कथा अपने पाठकों तक पहुचाना चाहती हूँ
पहले मैं प्रेम के विषय में कुछ कहना चाहती हूँ -हर जीव ,पेड़ -पौधे जिसमे भी चेतनता होती है वो प्रेम करता है। एक प्रेमी अपने प्रेम का प्रतिकार मांग कर नही चाहता । वो अपने प्रेमी की दृष्टि को देखता हैं उसमे अपने लिए जगह तलाशता रहता है ,मौन तपस्वी की तरह । जो इस को न पहचान सके वो इंसान कम मशीन ज्यादा है ,ईश्वर की बनाई हुई मशीन ।
भगवान् ग्यारह वर्ष कि उम्र तक वृज में रहे । किशोरा अवस्था में वे अक्रूर के साथ मथुरा गए । कंस के बुलावे पर । कंस श्री कृष्ण को मथुरा बुला कर मल्ल युद्ध के बहाने मारना चाहता था । भगवान मथुरा गए कंस के तमाम सैनिको को मारकर कंस का वध कर दिए । अपने माता -पिता देवकी और वासुदेव को कारागार से मुक्त किया ।
इस प्रकार व्रज में श्री कृष्ण केवल ११ वर्ष कि अवस्था तक रहे । कुछ अज्ञानी गोपी -कृष्ण प्रेम को अपनी मानसिक विकृति के साथ देखतें हैं जबकि दुनिया में इससे पावन और कुछ नहीं हो सकता ।
अब गोपियों के बारे में जानिये -श्री कृष्ण प्रेम में पगी गोपियाँ घर -बार वालीं थी । वृज में रहने वालीं सभी स्त्रियाँ ,किशोरियां कृष्ण कि भक्त थीं ।
गोपियों में सबसे कम उम्र थी श्री राधाजी की पर वो भी श्री कृष्ण जी से पांच साल बड़ी थी । श्री राधा रानी भी विवाहित थीं पर वे श्री कृष्ण के पावन प्रेम में इस तरह पड़ी कि सबकुछ भूलकर उनके चरणों कि सेविका बन गई।
श्री राधा जी का गाँव था "वरसाना "एक बार श्री कृष्ण जी मोर के पीछे खेलते हुए वृषभानु जी के महल तक चले गए वहां श्री राधा जी भगवान् की अनुपम छवी को देख कर मोहित हो गयी ।
श्री राधा जी गाँव था "बरसाना "एक बार श्री कृष्ण जी मोर के पीछे खेलते हुए श्री वृषभानु जी के महल तक चले गए वहां श्री राधा जी भगवान् कि अनुपम छवी को देख कर मोहित हो गई । भगवान् भी योगमाया के रूप में राधा रानी को पहचान गए । राधा जी जैसे -जैसे बड़ी होतीं गई श्री कृष्ण प्रेम का रंग गहरा होता गया ।
श्री राधा जी का अप्रतिम सौन्दर्य लक्ष्मी जी से कम न था ।
गोपियाँ भगवान् के दर्शन करने के बहाने खोजा करतीं थी । वे राह देखतीं कि भगवान् आयें और उनके माखन कि मटकी को जूठा करें । हम उलाहना लेकर नन्द भवन जाए और कन्ह्यैया के दर्शन करें ,भगवान् कि अद्भुत लीला कि प्यासी गोपियाँ उनकी मुरली की धुन सुन कर सब छोड़ कर भाग आतीं ।
भगवान की मुरली की धुन सुन कर मनुष्य तो क्या पशु -पक्षी भी चित्र से हो जाते । जो जिस अवस्था में रहता ,जैसे रहता वह वहीं उसी दशा में बीन्ध जाता । गाय अगर घास खा रही होती तो आधी अन्दर और आधी मुख के बाहर लिए हुए ही खडी रह जाती ,पक्षी अगर उड़ने को पंख फैलाए हो और मुरली बजी तो उसी तरह वो खड़ा रह जाता था ,हिरन पानी पीना भूलकर खड़े रह जाते थे । कुलांचे मारते हिरन थम जाते ,यमुना जी का जल ठहर जाता ,बहना भूल कर चित्रखीचा सा हो जाता यमुना जी का जल ,सुगंधित वायु वही रुक जाती ,पेड़ -पौधे ,लता -कुञ्ज ,पूरी प्रकृति वंशी कि धुन में डूब जाता ।
जब प्रकृति थम जाती थी तब भला जीवों कि क्या दशा होती होगी । गोपियाँ जब वंशी कि धुन सुनती तो खडी कि खडी रह जातीं । श्री कृष्ण जी के अनंत सौन्दर्य को निहारतीं ही रह जाती ।
गोपियाँ अपनी बदनामी कि परवाह भी नहीं करतीं थीं वे लोक लाज को भूलकर श्री कृष्ण कि एक झलक पाने के लिए सब कुछ छोड़ कर भाग आतीं । कोई सखी अपनी अवस्था की परवाह नहीं करती थी भगवान् की मोहिनी लीला सबके सुध -बुध हर लेती थी ।
गोपियाँ संसारी थीं वे व्यवहार तो संसार का करतीं थीं पर मन में श्री कृष्ण को बिठा कर रखतीं थीं ।
प्रेमी अपने मन में एक और मन रखता है जिसे दुनियां वाले नहीं देख पाते । पवित्र प्रेम का स्थान वहीँ होता है । उस प्रेम में और कुछ नहीं केवल पूजा है । पूजा में भी कर्म काण्ड होतें हैं जो दुनिया वाले देखतें है पर यह प्रेम तो साक्षात ईश्वर है जिसे केवल अपना मन देखता है या फिर परमात्मा । यह प्रेम किसी कि परवाह नहीं करता ,न कुछ दिखाता है । वह तो अपने ह्रदय के अन्दर एक परम पावन स्थान रखता है जहां वह केवल अपने प्रिय को बसा कर रखता है । जब मन करता उसे निहार लेता है ,बातें कर लेता है वहां तो हमेशा पूजन होता रहता है । उस प्रेम को संसार कैसे देख सकेगा ,उसे देखने के लिए तो बड़ी पावन दृष्टी चाहिए । विकृति में फंसा हुआ व्यक्ति उसे कैसे देख सकेगा ?नहीं देख सकेगा।ऐसे लोगों को समझाया भी नही जा सकता की प्रेम क्या है क्यों की वो स्थूल दृष्टि से ऊपर नही जा सकते ,या फ़िर उनकी बुद्धि वहाँ तक नही जा पाती ठीक वैसे ही जैसे उल्लू को दिन में नही दीखता । पूरी दुनिया सूर्य भगवान् का स्वागत करती है पर ,पूजा करती है ,तेज लेती है ,जीवन लेती है ,परन्तु उल्लू नही जान सकता की सूर्य क्या हैं । वह कहता है सूर्य नही हैं । युगों बीत गए पर उसे कोई नही समझा पाया की आँखे खोलो और सूर्य का दर्शन करो ।
इसी प्रकार गोपियों के प्रेम को देखने और समझने के लिए उल्लू की आँख नही पवित्र दृष्टी होनी चाहिए ।
जिसनेएक झलक श्री कृष्ण की देखी वह अपना सब कुछ हार गया
श्री कृष्ण जी कृपा केवल प्रेमी भक्त ही पा सकता है । वे भक्तों के भगवान् ,वेदान्तियों के ब्रम्ह और गोपियों के परमात्मा हैं । वे विश्वमोहन हैं । गोपियाँ धर्म ,ज्ञान ,योग आदि नही जानती वे तो केवल प्रेम जानती हैं ,अपने प्रिय कृष्ण को अपने प्राण निछावर कर चुकी गोपियाँ केवल उनकी दासी बन कर रहना चाहती है ताकि उनकी एक झलक पा सकें ।
जब भगवान् ने गोपियों के वस्त्र छिपाए थे तब शरद रात्री को मिलने के लिए कहा था । दुधिया चांदनी में बेला ,चमेली और सुगन्धित पुष्प खिल कर महक रहे हैं । भगवान् ने गोपियों को दिब्य बनाया अपने प्रेम का रस पिला कर । गोपियों पर भगवान् ने कृपा की । योगमाया के सहारे गोपियों को निमित्त बना कर उनको प्रेम की उच्चा अवस्था तक पहुँचाया ।
गोपियाँ श्री कृष्ण का प्रेम पाना चाहतीं थी पूर्णिमा की रात ,दुधिया चांदनी ने वन के कोने -कोने में अमृत उड़ेल दिया था । दिव्य धवल रात्री में वृंदा वन में श्रीकृष्ण जी ने वासुरी पर सबके मन को हरण करने वाली मधुर तान छेडी ।
अब तो गोपियों का संकोच ,भय ,धैर्य ,मर्यादा सब ख़तम हो गया कृष्ण प्रेम ने सब छीन लिया । मुरली की धुन सुनते ही ब्रिज -बालाओं की विचित्र गति हो गई । सारी गोप बालाएं एक दूसरे से छिप कर बिना किसी को बताये भगवान् के पास चल पड़ी ।
जब भगवान् ने वासुरी बजाई तो उनके प्रेम में पगी गोपियाँ जो दूध दुह रहीं थीं वो दुहना छोड़ कर चल पड़ी ,जो चूल्हे पर दूध औटा रही थी वे उफनता हुआ दूध छोड़ कर और जो गोपी भोजन पका रही थी उसे बिना उतारे ही ज्यों -का -त्यों छोड़ कर चल दी । जो अपने परिवार को भोजन परोस रही थी वे उसे छोड़ कर ,जो छोटे -छोटे बच्चों को दूध पिला रही थी वे दूध पिलाना छोड़ कर ,जो अपने पतियों की सेवा -सुश्रुषा कर रही थी वे उसे छोड़ कर और जो स्वयं भोजन कर रही थी वे अपना भोजन छोड़ कर अपने प्रिय कृष्ण के पास चल पड़ी ।
कोई गोपी अपने शरीर में उबटन लगा रही थी ,कोई गोपी आंखों में अंजन लगा रही थी एक आँख में लगा दूसरी आँख बिना अंजन के ,कोई उलटे वस्त्र में श्री कृष्ण की वन्सुरी सुनते ही चल पड़ी ।
पिता और पतियों ने ,भाई और बंधुओं ने उनको रोका परन्तु वे नही रुकी । क्योंकि उनका मन विश्वमोहन श्री कृष्ण ने हर लिया था । वे मन प्राण और आत्मा श्री कृष्ण को सौप चुकी थी केवल उनका शरीर इस संसार के धर्म का पालन कर रहा था ।
गोपियों ने जो प्रेम प्रभु से किया वही है पवित्र प्रेम वे रहती थी अपने घर में ,काम -काज सब करती थी ,पति -घर -बच्चे सब के बीच रह कर भी प्रेम करतीं थी कृष्ण से उनका मन था श्री कृष्ण में ।
वृज की कुछ नई वधुएँ जो घरों के अन्दर थी और निकल नही पाई ,जब कृष्ण जी की वासुरी की तान सुनी तो अपने नेत्र बंद करके बड़ी तन्मयता से श्री कृष्ण के अनुपम सौन्दर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगी ।
परम प्रेम में पड़कर गोपियों के सारे अशुभ संस्कार भस्म हो गए । जिन गोपियों ने भगवान् का ध्यान किया भगवान् प्रकट हो गए । गोपियों ने मन ही मन बड़े प्रेम से भगवान् का आलिंगन किया ।
यही है अनन्य प्रेम ध्यान में ही अपने प्रियतम का आलिंगन और फ़िर श्रीकृष्ण मय हो जाना ।
जब गोपिया श्री कृष्ण के पास पहुँची तो श्री कृष्ण ने अपनी वाक् चातुरी से मोहित करते हुए कहा -आओ गोपियों तुम्हारा स्वागत है । देखो सर्वश्रेष्ठ मैं ही हूँ । तुम इतनी रात यहाँ क्यों आई हो ?घर में सब कुशल -मंगल है न ?बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करू ? गोपियों ने कहा -पहले तो मन को चुराते हो फ़िर कहते हो क्यूँ आई हो ।
भगवान् ने कहा -सुंदर गोपियों ! रात का समय है । भयानक जीव -जंतु घूमते रहतें हैं । तुम यहाँ आई डर नही लगा ,जाओ अपने घर लौट जाओ ।
गोपियों ने कहा -हे श्री कृष्ण मेरा मन अब मेरा नही है हम आपके दर्शन की चाह में सब कुछ छोड़ कर आयीं है ,अब आप कहते हो लौट जाओ । गोपियाँ उदास हो गईं ।
श्री कृष्ण ने कहा -तुम्हारे भाई -बंधू ,माँ-बाप ,पति -पुत्र तुमको खोज रहे होंगे तुम उनको भय में डालो । अब तो तुमलोगों ने मुझे देख लिया । इस वन की शोभा को भी देख लिया अब देर न करो शीघ्र अपने घर जाओ अपने बच्चों ,पति और परिवार की करो गौए दुहो अपना घर देखो । गोपियों तुम लोग मेरे प्रेम के वश में होकर यहाँ आई हो यह कोई अनुचित बात नही है क्यों की मुझसे तो पशु -पक्षी भी प्रेम करतें हैं ।
"त्रिभुँवन सुंदर भगवान् का रूप जो काम को भी लज्जित करता है तो गोपियाँ कैसे न मोहित हो । "
श्री कृष्ण ने कहा गोपियों ! स्त्रियों का परम धर्म है यही है की वे अपने पति और उनके भाई बंधुओं की निष्कपट भाव से सेवा करें संतान का पालन पोषण करें । इसलिए !कुलीन स्त्रियों अपने घर जाओ । यह सुन कर गोपियों के दुःख के आंसू निकल पड़े ।
गोपियों ने कहा -हम अपने श्याम सुंदर के लिए सारी कामनाएं ,सारे भोग छोड़ कर आई हैं । हम सब केवल तुम्हारे चरणों में प्रेम करती हैं ।
प्रिय मोहन ! तुम स्वतंत्र हो तुम पर हमारा कोई वश नही है । फ़िर भी जिस प्रकार भगवान् अपने भक्तों से प्रेम करतें हैं वैसे ही तुम हमें स्वीकार कर लो । हमारा त्याग मत करो । हम तुमको देखे बिना नही जी पाएंगी ।
प्रिय श्याम सुंदर यह कहना ठीक है की -अपने पुत्र -पति और भाई -बंधू की सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है । अब तक हमारा चित्त घर के काम धधों में लगता था । परन्तु तुमने हमारा चित्त लूट लिया । अब हमारी गति मति निराली हो गयी है । इन चरण कमलों को छोड़ कर हम घर कैसे जाएँ तुम्हारी मंद -मंद मुस्कान ,प्रेम भरी चितवन ,मनोहर वंशी की तान हमारा चित्त हर लिए है । अब हम किसी के सामने एक क्षण भी नही ठहर सकने में असमर्थ हैं । हम सब छोड़ कर तुम्हारे शरण में आईं हैं । हे पुरूष भूषण !हे पुरुषोत्तम ! तुम हमें अपनी दासी स्वीकार कर लो ।
इतना सुन कर भगवान् ने गोपियों का मान किया । उनसे प्रेम भरी सखी भाव का ब्यवहार किया ।
गोपियाँ मान वती हो गयी उनके मन यह भाव आया की भगवान् मुझसे प्रेम करते हैं इसलिए हम श्रेष्ठ हैं । श्रीकृष्ण का अनन्य प्रेम पाकर अहंकार हो जाना स्वाभाविक है पर भगवान् को यह नही अच्छा लगा वे अंतर्ध्यान हो गए ।
जब श्री कृष्ण अंतर्धान हो गए तो गोपियों को बहुत दुःख हुआ । उनका ह्रदय विरह ब्यथा से जलने लगा । अब वे अपने को सर्वथा भूल गई ।
गोपिया भगवान् के प्रेम की प्यासी थी भगवान् मिले भी लेकिन जब गोपियों को अहंकार हो गया की 'भगवान् मुझसे प्रेम करते हैं मैं श्रेष्ठ हूँ ' तब सबके मन की जानने वाले भगवान् को भान हो गया की गोपियों में अहंकार आ गया है अतः इसे मिटाना है ,भगवान् अंतर्धान हो गया ।
आप सब जान ले की जहा अहंकार होगा वहाँ प्रेम नही टिकेगा । प्रेम तो समर्पण है और समर्पण में अपना क्या रहा फ़िर अहंकार कैसे रहेगा ।
बंधुओं यही है प्रेम ,प्रेम में यह बात विशेष महत्व की होती है की -जिसे हम प्रेम करें उसकी खुशी में अपनी खुशी खोज ले । प्रेम में हिंसा ,इर्ष्या ,स्वार्थ ,निंदा दूर -दूर तक नही होना चाहिए । विचार करे इस प्रकार का प्रेम कितने लोग करते है ।
किसी भी प्रकार से उसे ,जिसे आप प्रेम करतें हैं दुःख न होने देन । प्रेम का दूसरा पहलु है भक्ती और यह सब के बस की बात नही है । गोपियाँ भगवान् का प्रेम पाने के लिए सब कुछ छोड़ कर आयी हैं ,वे केवल उनके रूप की ,उनके गुणों की ,उनके चरणों की दासी बनाना चाहती है । आज हम श्री कृष्ण का साथ तो नही पा सकते । अब वे धरती के नही वैकुण्ठ के वासी हैं । गोपियाँ भगवान् के साथ। रही पर आज हम उनकी कृपा को पा सकते हैं भक्ती और प्रेम के द्वारा ,उनके बताये मार्ग पर चलकर ,उनको अपने ह्रदय में बसा कर अनेक लोगों ने उनकी कृपा को पाया है भक्ती के द्वारा ।
प्रेम और भक्ती दोनों एक दूसरे के पूरक हैं जहाँ प्रेम होगा वहां भक्ती भी होगी और भक्ति तभी होगी जब प्रेम होगा । प्रेम या भक्ति डूब कर होती है -
उसकी याद आई है ,साँसों जरा आहिस्ता चलो !
धडकनों से भी इबादत में खलल पड़ता है !!
भक्ती बड़ी कठिन होती है सब नही कर पाते पर जो करतें हैं वो इस तरह करतें है । आज एक मिनट की मुलाकात में लोग प्यार करतें है और अगले मिनट में उनका प्रेम घृणा बन जाता है । कब हुआ कब खतम हुआ पता ही नही चलता । हम भगवान् के साथ भी यही प्रपंच करतें है अगर वो मेरी इक्षा पूरी करतें हैं तो हैं नही तो भगवान् केआस्तित्व में भी शक है ।
लोग कामना पूर्ण न होने पर कहते है मैंने उनकी पूजा की क्या मिला ? सोचिये क्या ये प्रेम है ?
क्या ये उस सर्वेश्वर का सम्मान है ? क्या ऐसा सोचना उनके न्याय के प्रती अन्याय नही है ?
भगवान् से कुछ भी मांगते वक्त क्या हम अपनी पात्रता का ख्याल रखतें हैं ?
भगवान् भी नियमो का पालन करतें हैं ,धर्म का पालन करतें हैं ,भगवान् ने इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना के लिए अनेक कष्ट सहे जीवन भर दुर्जनों के संहार में लगे रहे । श्रेष्ठ कर्मो से बंधे रहे ।
गोपियाँ भगवान् के गुणों पर उनसे प्रेम करतीं थीं ,अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर नही । गोपियों ने भगवान् को अपने ह्रदय में बसाया यही प्रेम है यही भक्ती है
प्रेमी अपने प्रियतम को ,भक्त अपने भगवान् को अपने ह्रदय में बिठाता है जो लोग समझते है परमात्मा मन्दिर में रहतें हैं और उनका दर्शन करने जाते हैं समझो कच्चे भक्त हैं अभी वो भक्ती करना सीख रहा है । परमात्मा तो भक्त के ह्रदय में ,आंखों में ,ख्यालों में ख्वाबो में बसे तो समझो भक्ती हो रही है वरना नही ।
भक्त के अन्दर अहंकार नही होना चाहिए गोपियों को जरा सा मान हुआ ,भगवान् अंतर्धान हो गए । गोपियों की स्थिति विरहिणी की हो गयी । भगवान् को साँसों में सुगंध की तरह बसाओ और जीवन की तरह सवारों तब प्रेम पूर्ण होता है । प्रेम ही परमात्मा है और प्रेमी परमानंद है । उनमे खो जाओ तब वे तुम्हे खोज लेंगे जैसे सुदामा को मिले भगवान् ।प्रेम ही व्रत है ,प्रेम ही नियम है ,प्रेम ही साधना है ,ध्यान है ,धारण करने योग्य है ,प्रेम ही समाधि है। प्रेम करना तो गोपियों से सीखना चाहिए ,वे ही प्रेम की ध्वजा हैं ।
श्री कृष्ण जब अंतर्धान हो गए तो गोपियों की दशा विचित्र हो गयी । वे वनस्पतियों से ,पेड़ -पौधों से उनका पता पूछने लगीं । श्री कृष्ण के विरह में गोपियों ने तुलसी से ,पीपल ,पाकर ,बरगद ,कुरबक ,अशोक ,नागकेशर ,पुन्नाग और चम्पा के वृक्ष से कृष्ण का पता पूछा । रसाल ,प्रियाल ,कटहल ,पीतसाल ,कचनार ,जामुन ,आक ,बेल ,मौलसिरी ,आम ,कदम्ब और नीम तथा अन्य तरुवरों से भगवान् का पता पूछा ।
हिरनों और पक्षियों से पूछा श्री कृष्ण की भावना में डूबी गोपिया यमुना की पावन रेती में लोट गई और भगवन के गुणों का गान करने लगीं । गोपियों ने श्री कृष्ण के विरह में जो गाया वही है "गोपी -गीत "!
गोपी गीत में १९ श्लोक हैं जो इसे गाता है वह भगवान् की कृपा का पात्र होता है ।
गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं - प्यारे ! आपने व्रज में जन्म लिया इसीलिए व्रज की महिमा वैकुण्ठ से भी अधिक बढ़ गई । तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवास स्थान "वैकुण्ठ "छोडके यहाँ रहने लगी है । परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपिया तुम्हारे ही चरणों में अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं ,वन -वन में भटक कर तुम्हे ढूंढ रही हैं ।
हमारे ह्रदय में आप ही बसे हो हम तो बिना मोल की बिकी हुई आपकी दासी हैं । हमारा ह्रदय आपसे प्रेम करता है आपही हमारे स्वामी आप होआपके सुंदर नेत्र से हम धायल हो चुकी हैं । हमारे मनोरथ को पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर !क्या नेत्रों से हमें मारना वध नही है ?क्या अस्त्रों से मारना ही वध होता है ?
हे पुरूष शिरोमने !यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु ,अजगर के रूप में खाने वाले अघासुर ,इंद्र की वर्षा ,आंधी, विजली ,दावानल ,वृषभासुर और व्योमासुर आदि से और भिन्न -भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार -बार हमलोगों की रक्षा की है ।
तुम केवल यशोदा नंदन ही नही हो ,समस्त शरीर धारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो ,अन्तर्यामी हो । सखे ! ब्रम्हा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो !
हे यदुवंश शिरोमने ! तुम तो अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करते हो । जो तुम्हारी शरण में आता है उसे तुम जन्म -मृत्यु रूपी संसार के चक्र से छुड़ाकर अभय कर देते हो । हमारे प्रियतम ! तुम्हारे कर कमल सबकी अभिलाषाओं को पूर्ण करतें हैं । वो कर कमल जिससे तुमने लक्ष्मी का हाथ पकड़ा है ,हमारे सर पर रख दो ।
वीर शिरोमणि तुम वृजवासियों के दुःख को हरने वाले हो !श्याम सुंदर !तुम्हारी मंद -मंद मुस्कान की एक उज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमी जनों के मान को चूर -चूर करने के लिए पर्याप्त हैं । हमारे प्यारे सखा हमसे रूठो मत !हमसे प्रेम करो ,हम तुम्हारी दासी हैं ,तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं । हम दुखी अबलाओं को अपना वह परम सुंदर सांवला -सांवला मुख कमल दिखलाओ ।
तुम्हारे चरण कमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देतें हैं । वे समस्त सोंदर्य ,माधुरी की खान हैं । लक्ष्मी जी स्वयं उनकी सेवा करती हैं । तुम उन्ही चरणों से हमारे बछड़ो के पीछे पीछे चलते हो और हमारे लिए उन चरणों को साप के फनों पर भी रख देते हो । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है । तुम्हारे मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम उन्ही चरण कमलों को हमारे वक्ष :स्थल पर रख दो और हमारे मिलन की आकांक्षा को शांत कर दो । गोपियाँ कहती हैं तुम अपने चरण हमारे ह्रदय पर रख दो क्यों की हम उनकी (आपके चरणों की )दासी हैं ।
कमल नयन !तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । आपके एक -एक शब्द एक -एक अक्षर मधुरातीमधुर है .बड़े -बड़े विद्वान भी उसे सुनकर ख़ुद को भूल जाते हैं । अपना सर्वस्व निछावर कर देतें हैं । तुम्हारी उसी वाणी पर तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हैं ।
दान वीर !अब तुम हमें अपना दिब्य अधरामृत पिला कर जीवन दान दो । प्रभो तुम्हारी लीला कथा भी अमृत है विरह से व्याकुल लोगों के लिए यह जीवन है । अनेक ग्यानी महात्माओं ने भक्त कवियों ने आपकी कथा को गाया और अपने पाप ताप को मिटाया है । आपकी कथा श्रवन मात्र से परम मंगल और परम कल्याण करती है । आपकी लीला परम मधुर और अनंत है !गोपियाँ कहती है -जो आपकी कथा गाता है वही सबसे बड़ा दाता है ।
प्यारे ! हम तुम्हारी प्रेम भरी हँसी ,चितवन और क्रीडाओं का ध्यान करके आनंद मग्न हो जाती हैं । हमसे कपट न करो हमारा मन क्षुब्ध है हमें दर्शन दो ।
हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण तो कमल से भी सुंदर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिए वृज से निकलते थे तो तुम्हारे सुंदर ,सुकुमार युगल चरण में कितने कंकण ,कुश -कांटे चुभते रहे होंगे । आज यह सोच कर हमें बड़ा दुःख हो रहा है !तुमने हमारे लिए कितने कष्ट सहे ।
दिन ढलने पर जब श्री कृष्ण गौओं को लेकर आते ,तो गोपियाँ कहती हैं -दिन ढले तुम गौओं को लेकर वन से घर आते तो हम देखती थीं तुम्हारे सुंदर मुख को ,तुम्हारी नीली घुंघराली अलकें ,उन पर गौओं के खुर से उड़ -उड़ कर घनी धूल पड़ी होती थी ।
हमारे वीर प्रियतम !तुम फ़िर हमें अपना वह सौन्दर्य दिखा कर हमारे विरह को शांत करो । प्रियतम एकमात्र तुम्ही हमारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों को परम सुख प्रदान करतें हैं उनकी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करते हैं । लक्ष्मी जी स्वयं उनकी सेवा करतीं है । आपके चरण कमल तो पृथ्वी का भूषण हैं । आपत्ति के समय केवल उन्ही का चिंतन करने से सारी आपत्तियां कट जाती हैं ।
हे कुञ्ज विहारी ! तुम अपने परम कल्याण स्वरूप चरण कमल हमारे वक्षस्थल पर रख कर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो ।
वीर शिरोमणि ! यह जो वासुरी है ये तुम्हारे अधरामृत का पान करने के कारण ही इतनी मोहक तान छेड़ पाती है । इस अमृत का वितरण हमें भी करो ।
प्यारे !दिन के समय जब तुम वन में चले जाते हो तब तुम्हे देखे बिना हमारे लिए एक -एक क्षण युग के समान हो जाते हैं । जब तुम संध्या के समय लौटते हो तो घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुंदर मुखारविंद जब हम देखतीं हैं तो उस समय पलकों का गिरना हमारे लिए भार हो जाता है और तब लगता है ,इन नेत्रों की पलकों को बनने वाला विधाता मूर्ख है ।
प्यारे श्याम सुंदर !हम सारे बन्धनों को त्याग कर ,पति पुत्र ,भाई बंधू और कुल परिवार को त्याग कर उनकी इक्षा और आज्ञा का उल्लघन कर आपके दर्शन को aai हैं । हम तुम्हारे मधुर गान की एक -एक गति समझतीं हैं ,संकेत समझती हैं ,तुम्हारी वासुरी की तान से बंधी हुई इस रात्री में हम यहाँ आई हैं और तुम इतने निर्दई की हमें छोड़ गए । तुम कपटी हो पहले मोहित करते हो फ़िर त्याग करते हो ।
तुम्हारी मुस्कराहट ,प्रेम भरी तिरछी चितवन ,तुम्हारी वंशी की धुन,तुम्हारा वह विशाल वक्षस्थल जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करतीं हैं ।
मनमोहन जब से तुमको देखा है तब से आज तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है । हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है । तुम्हारे अनंत गुन और मन को हरने वाली लीलाएं ,तुम्हारा रूप सौन्दर्य हम वृज वासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाला है । आप सम्पूर्ण विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए पृथ्वी पर आए हैं । आप कुछ ऐसा कर दो जिससे आपके भक्तों का ह्रदय रोग निर्मूल हो जाए ।
मन मोहन ! आपके चरण कमल से भी अधिक सुकुमार हैं उन्हें हम अपने कठोर वक्ष:स्थल पर बहुत धीरे से रखतीं हैं की कहीं उनपर चोट न लग जाय और आप उन्ही सुकोमल चरणों से रात्रि के समय इस घोर जंगल में हमसे छिपे छिपे फ़िर रहे हो । आपके उन्ही कोमल चरणों में कंकड़ ,पत्थर ,कुश -कांटे चुभ रहे होंगे आपको पीड़ा हो रही होगी यह सोच कर हम अचेत हुई जा रहीं हैं ।
श्री कृष्ण ! श्याम सुंदर ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है ,हम तो बस तुम्हारे लिए ही जी रहीं हैं । हम केवल तुम्हारी हैं ।
इस प्रकार गोपिया विरह आवेश में भांति -भांति से गान करने लगीं अपने प्यारे के दर्शन की लालसा को वे रोक नही पा रहीं हैं । करुनाजनक ,सुमधुर स्वर से फूट -फूट कर रोने लगीं । ठीक उसी समय उनके बीचों बीच भगवान् श्री कृष्ण प्रकट हो गए । उनका मुख कमल मंद -मंद मुस्कान से खिला हुआ था ,गले में वन माला थी ,पीताम्बर धारण किए हुए थे उनका यह रूप कोटि -कोटि कामों को लज्जित करने वाला था । सुंदर और परम मनोहर था । अपने श्याम सुंदर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनद से खिल उठे ,मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो ,एक -एक अंग नवीन चेतना से खिल उठा । गोपियाँ पूर्ण काम हो गयी !
भगवान् यमुना जी की रेती में गोपियों के बीच आए ,गोपियों ने अपनी ओढ़नी बिछा दी भगवान् बैठे । सहस्त्र -सहस्त्र गोपियों ने उनकी पूजा की भगवान् की शोभा निराली थी । तीनो लोकों के सौन्दर्य भगवान् से आश्रय मागते हैं उन भगवानका स्पर्श गोपियाँ कर रही हैं । किसी ने उनके चरण कमल अपनी गोद में रखा तो किसी ने कर कमल को । गोपियाँ पूछतीं हैं आप हमसे क्यों छिप गए ?क्या हम आपसे प्रेम नही करतीं हैं ?
भगवान् ने प्रेम का स्वरूप बताया -
बोले मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करतें हैं वो तो मात्र लेंन देन है ,उस प्रेम में सौहार्द और धर्म नही होता केवल स्वार्थ होता है ।
सुंदरियों ! जो लोग न प्रेम करने वालों से भी प्रेम करतें हैं वे स्वभाव से ही सज्जन और करुना से भरे होते हैं । वे बड़ो का सम्मान करते हैं ,सब के हितैषी होतें हैं ,किसी का बुरा करने की नही सोचते । सच पूछो तो उनका व्यवहार ,सत्य एवं धर्म पूर्ण होता है ।
कुछ लोग ऐसे होतें हैं जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नही करते ,न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्नं ही नही उठता है ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं -
-प्रथम वे जो अपने में ही मस्त रहतें हैं जिनकी दृष्टि में कोई और आता ही नही ।
-दूसरे वे हैं जिन्हें द्वेत तो भाता है पर कोई प्रयोजन नही रखते ।
-तीसरे वे हैं जो जानते ही नही की हमसे कौन प्रेम करता है वे भ्रम में रहते हैं की अमुक मुझे प्रेम करता है या नही ,वे समझ ही नही पाते ।
-और चौथे वे हैं जो जानबूझ कर अपने हितैषियों और परोपकारी लोगों से द्रोह करतें हैं और उनको सतातें भी है ।
भगवान् कहतें हैं -गोपियों मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नही करता जैसा करना चाहिए ।
मैं ऐसा इसलिए करता हूँ ताकि उनकी चित्तवृत्ती मुझमें लगी रहे । मैं मिल -मिल कर छिप जाता हूँ ।
गोपियों !निसंदेह तुम लोगों ने मेरे लिए लोक मर्यादा ,वेदमार्ग और अपने सगे सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है ,ऐसी स्थिति में तुम्हारा चित्त कहीं और न जाय इसलिए मैं छिप गया ।
मेरी प्रिय गोपियों !जो काम बड़े -बड़े योगी मुनि नही कर पाते वो तुमने किया है । तुम्हारा यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है । मैं अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम का ऋनि रहूँगा । तुम अपने सौम्य स्वभाव से मुझे उरिन (मुक्त )कर सकती हो परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋनी (कर्जदार )ही रहूँगा ।
ॐ नमो नारायणाय ............त्वामहं शरणम् मम !
adbhut varadan hai!
ReplyDeleteबहुत ही उत्तम। श्री राधा रानी की और श्री बाँके बिहारी जी की जिनपे कृपा होती है, उन्हें ही गोपी गीत की प्राप्ति होती है। क्योंकि जिन्हें गोपी गीत की महिमा समझ में आ गई है वह तो साक्षात प्रभु का दर्शन करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है। जय राधा माधव।
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