Thursday, October 28, 2010

नानक वाणी

नानक वाणी

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु।।
हरि किरपा ते संत भेटिया नानक मन परगासु।।1।।
हरि सजणु गुरु सेवदा गुर करणी परधानु।।
नानक नामु न वीसरै करमि सचै नीसाणु।।2।।
बलिहारी गुरु आपणे दिलहाड़ी सदवार।।
जिनि माणस ते देवते कीए करत न लागी वार।।3।।
वाहिगुरु नाम जहाज है चढ़े सो उतरे पार।।
जो श्रद्धा कर सेंवदे नानक पार उतार।।4।।
गुर की मूरति मन महि धिआनु गुर कै सबदि मंत्रु भनु मान।।
गुर के चरन रिदै लै धारउ गुरु पारब्रहमु सदा नमसकारउ।।5।।
घटि घटि मैं हरि जू बसै संतन कहिओ पुकारि।।
कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि।।6।।
भै नासन दुरमति हरन कलि मैं हरि को नाम
निस दिन जो नानक भजै सफल होहि तिह काम।।7।।
जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नाम।।
कहु नानक सुन रे मना परहि न जम कै धाम।8।।
जनम जनम भरमत फिरिओ मिटिओ न जम को त्रासु।।
कहु नानक हरि भजु मना निरभै पावहि बासु।।9।।
जतन बहुत सुख के कीए दुःख को कीओ न कोइ।।
कहु नानक सुन रे मना हरि भावै सो होइ।।10।।
जगतु भिखारी फिरतु है सभ को दाता राम।।
कहु नानक मन सिमरु तिन पूरन होवहि काम।।11।।
तीरथ बरत अरु दान करि मन मैं धरै गुमानु।।
नानक निहफल जात तिहि जिउ कुंचर इसनानु।।12।।
जग रचना सब झूठ है जानि लेहु रे मीत।।
कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीत।।13।।
राम गइओ रावनु गइयो जा कउ बहु परवार।।
कहु नानक थिरु कछु नही सुपने जिउ संसारि।।14।।
चिंता ताकि कीजिये जो अनहोनि होइ।।
इह मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ।।15।।
संग सखा सभ तजि गये कोउ न निबहिओ साथ।।
कहु नानक इह बिपत मैं टेक एक रघुनाथ।।16।।
लालच झूठ बिकार मोह बिआपत मूड़े अंध।।
लागि परे दुरगंध सिउ नानक माइआ बंध।।17।।
तनु मनु धुन अरपउ तिसै प्रभु मिलावै मोहि।।
नानक भ्रम भउ काटीऐ चूकै जम की जोह।।18।।
पति राखी गुरि पारब्रहम तजि परपंच मोह बिकार।।
नानक सोऊ आराधीऐ अंतु न पारावारु।।19।।
आए प्रभ सरनागति किरपा निधि दइहाल।।
एक अखरु हरि मन बसत नानक होत निहाल।।20।।
देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ।।
नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ।।21।।
उसतति करे अनेक जन अंतु न पारावार।।
नानक रचना प्रभि रची बहु बिधि अनिक प्रकार।।22।।
करण करण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ।।
नानक तिसु बलिहारणी जलि थलि मही अलि सोइ।।23।।
संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार।।
संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार।।24।।
सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार।।
जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार।।25।।
रूप न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन।।
तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन।।26।।
सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ।।
तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरिगुन गाउ।।27।।
फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ।।
नानक की प्रभ बेनती अपनी भगति लाइ।।28।।
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन।।
कहु नानक हरि भजु मना जिहि बिधि जल को मीन।।29।।
तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति।।
कहु नानक भज हरि मना अउध जातु है बीति।।30।।
धनु दारा संपति सगल जिनि अपुनी करि मानि।।
इन मैं कुछ संगी नही नानक साचि जानि।।31
पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ के नाथ।।
कहु नानक तिह जानिऐ सदा बसतु तुम साथ।।32।।
सभ सुख दाता राम है दूसर नाहिन कोइ।।
कहु नानक सुनि रे मना तिह सिमरत गति होइ।।33।।
जिह सिमरत गति पाईऐ तिहि भजु रे तै मीत।।
कहु नानक सुन रे मना अउध घटत है नीत।।34।।
पांच तत को तनु रचिओ जानहु चतुर सुजान।।
जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मान।।35।।
सुख दुखु जिह परसै नही लोभ मोह अभिमानु।।
कहु नानक सुन रे मना सो मूरति भगवान।।36।।
उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि।।
कहु नानक सुनु रे मना मुकति ताहि तै जानि।।37।।
हरख सोग जा कै नहीं बैरी मीत समान।।
कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।38।।
जिहि माइआ ममता तजी सभ ते भइओ उदास।।
कहु नानक सुन रे मना तिहि घटि ब्रहम निवासु।।39।।
जो प्रानी ममता तजै लोभ मोह अहंकार।।
कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार।।40।।
जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि।।
इन मै कछु साचो नही नानक बिन भगवान।।41।।
निस दिन माइआ कारने प्रानी डोलत नीत।।
कोटन मै नानक कोऊ नाराइन जिह चीत।।42।।
जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत।।
जग रचना तैसे रची कहु नानक सुनु मीत।।43।।
प्रानी कछू न चेतई मदि माइआ कै अंध।।
कहु नानक बिन हरि भजन परत ताहि जम फंध।।44।।
जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह।।
कहु नानक सुन रे मना दुरलभ मानुख देह।।45।।
माइआ कारनि धावही मूरख लोग अजान।।
कहु नानक बिनु हरि भजन बिरथा जनमु सिरान।।46।।
जो प्रानी निसि दिनि भजे रूप राम तिह जानु।।
हरि जनि हरि अंतरु नही नानक साची मानु।।47।।
मनु माइआ मै फधि रहिओ बिसरिओ गोबिंद नाम।।
कहु नानक बिनु हरि भजन जीवन कउने काम।।48।।
सुख मै बहु संगी भए दुख मै संगि न कोइ।।
कहु नानक हरि भजु मना अंति सहाई होइ।।49।।
दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ।।
सरणि तुमारी आइयो नानक के प्रभ साथ।।50।।
काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसु जाइ अहंमेव।।
नानक प्रभ सरणागति करि प्रसादु गुरदेव।।51।।
(सुखमनि साहिब, महला-1.5.9, आसा दी वार व बावन अखरी में से)

ॐॐॐॐॐॐ


गुरु समीप पुनि करियो बासा, जो अति उत्कट हे जिज्ञासा।
गुरु मूरति को हियमें ध्याना धारै जो चाहे कल्याना।।1।।
मन की जानै सब गुरु, कहाँ छिपावै अंध।
सदगुरु सेवा कीजिए, सब कट जावे फंद।।2।।
निश्चलदासजी (विचार सागर)
वेद उदधि बिन गुरु लखे लागे लौन समान।
बादल गुरु मुख द्वार है अमृत से अधिकान।।

ॐॐॐॐॐॐ

दोहे

दोहे

सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।1।।
देखा अपने आपको, मेरा दिल दीवाना हो गया।
ना छेड़ो मुझे यारों, मैं खुद पे मस्ताना हो गया हो।।2।।
चतुराई चूल्हे पड़ी, पूर पड़यो आचार।
तुलसी हरि के भजन बिन चारों वर्ण चमार।।3।।
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।4।।
सत्संग सेवा साधना, सत्पुरुषों का संग।
ये चारों करते तुरंत, मोह निशा का भंग।।5।।
यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
शिर दीजै सदगुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।6।।
कबीरा यह तन जात है, राख सके तो राख।
खाली हाथों वे गये, जिन्हें करोड़ों और लाख।।7।।
सब घट मेरा साँईया, खाली घट ना कोय।
बलिहारी वा घट की, जा घट प्रकट होय।।8।।
कबीरा कुआँ एक है, पनिहारी अनेक।
न्यारे न्यारे बर्तनों में, पानी एक का एक।।9।।
तुलसी जग में यूँ रहो, ज्यों रसना मुख माँही।
खाती घी और तेल नित, तो भी चिकनी नाँही।।10।।
पानी केरा बुलबुला, यह मानव की जात।
देखत ही छुप जात है, ज्यों तारा प्रभात।।11।।
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि कलेजा खाय।
वैद्य बिचारा क्या करे, कहाँ तक दवा खिलाय।।12।।
एक भूला दूजा भूला, भूला सब संसार।
बिन भूला एक गोरखा, जिसको गुरु का आधार।।13।।


कबीरा यह जग निर्धना धनवंता नहीं कोई।
              धनवंता तेहू जानिये जा को रामनाम धन होई।।

कबीरा इह जग आयके बहुत से कीने मीत।
            जिन दिल बाँधा एक से वो सोये निश्चिन्त।।

वह संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती के बाढ़ किस काम की।।

रविदास रात न सोईये दिवस न लीजिए स्वाद।
           निशदिन प्रभु को सुमरिए छोड़ सकल प्रतिवाद।।

उमा संत समागम सम और न लाभ कछु आन।
           बिनु हरि कृपा उपजै नहीं गावहिं वेद पुरान।।

सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।
             अकलमता कोई उपज्या गिने इन्द्र को रंक।।

कुंभ में जल जल में कुंभ बाहर भीतर पानी।
             फूटा कुंभ जल जले समाना यह अचरज है ज्ञानी।।

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या।
 मुझे प्रभु का पाठ पढ़ा दे कोई।।
मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं।
             मुझे प्रभु के गीत सुना दे कोई।।


जिसने दिया दर्द-ए-दिल उसका प्रभु भला करे।
आशिकों को वाजिब है कि यही फिर से दुआ करे।।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटई जिमि आगी ॥


ॐॐॐॐॐॐ

संत मिलन को जाइये

संत मिलन को जाइये

दुर्लभ मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्।।1।।
मनुष्य-देह मिलना दुर्लभ है। वह मिल जाय फिर भी क्षणभंगुर है। ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य-देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है।(1)
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मदभक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।2।।
हे नारद ! कभी मैं वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ, परंतु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ। (2)

कबीर सोई दिन भला जो दिन साधु मिलाय।
अंक भरै भरि भेंटिये पाप शरीरां जाय।।1।।
कबीर दरशन साधु के बड़े भाग दरशाय।
जो होवै सूली सजा काटै ई टरी जाय।।2।।
दरशन कीजै साधु का दिन में कई कई बार।
आसोजा का मेह ज्यों बहुत करै उपकार।।3।।
कई बार नहीं कर सकै दोय बखत करि लेय।
कबीर साधू दरस ते काल दगा नहीं देय।।4।।
दोय बखत नहीं करि सकै दिन में करु इक बार।
कबीर साधु दरस ते उतरे भौ जल पार।।5।।
दूजै दिन नहीं कर सकै तीजै दिन करू जाय।
कबीर साधू दरस ते मोक्ष मुक्ति फल जाय।।6।।
तीजै चौथे नहीं करै सातैं दिन करु जाय।
या में विलंब न कीजिये कहै कबीर समुझाय।।7।।
सातैं दिन नहीं करि सकै पाख पाख करि लेय।
कहै कबीर सो भक्तजन जनम सुफल करि लेय।।8।।
पाख पाख नहीं करि सकै मास मास करु जाय।
ता में देर न लाइये कहै कबीर समुझाय।।9।।
मात पिता सुत इस्तरी आलस बंधु कानि।
साधु  दरस को जब चलै ये अटकावै खानि।।10।।
इन अटकाया ना रहै साधू दरस को जाय।
कबीर सोई संतजन मोक्ष मुक्ति फल पाय।।11।।
साधु चलत रो दीजिये कीजै अति सनमान।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ अपने बित अनुमान।।12।।
तरुवर सरोवर संतजन चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारणे चारों धरिया देह।।13।।
संत मिलन को जाइये तजी मोह माया अभिमान।
ज्यों ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान।।14।।
तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।15।।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
चलाचली के वक्त में भलाभली कर लेह।।16।।
सुखी सुखी हम सब कहें सुखमय जानत नाँही।
सुख स्वरूप आतम अमर जो जाने सुख पाँहि।।17।।
सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।
मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।18।।
दुनिया कहे मैं दुरंगी पल में पलटी जाऊँ।
सुख में जो सोये रहे वा को दुःखी बनाऊँ।।19।।
माला श्वासोच्छ्वास की भगत जगत के बीच।
जो फेरे सो गुरुमुखी न फेरे सो नीच।।20।।
अरब खऱब लों धन मिले उदय अस्त लों राज।
तुलसी हरि के भजन बिन सबे नरक को साज।।21।।
साधु सेव जा घर नहीं सतगुरु पूजा नाँही।
सो घर मरघट जानिये भूत बसै तेहि माँहि।।22।।
निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव।
जो चाहे आकार को साधू परतछ देव।।23।।
साधू आवत देखि के चरणौ लागौ धाय।
क्या जानौ इस भेष में हरि आपै मिल जाय।।24।।
साधू आवत देख करि हसि हमारी देह।
माथा का ग्रह उतरा नैनन बढ़ा सनेह।।25।।

ॐॐॐॐॐॐ

परम स्नेही संत

परम स्नेही संत

स्वर्ग मृत्यु पाताल में पूर तीन सुख नांहि।
सुख साहिब के भजन में अरु संतन के माँहि।।1।।
संतन ही में पाइये राम मिलन कौ घाट।
सहजै ही खुलि जात है 'सुंदर' हृदय कपाट।।2।।
संत मुक्ति के पोरिया तिनसों करिये प्यार।
कूँचि उनके हाथ है 'सुंदर' खोलहि द्वार।।3।।
'सुंदर' आये संत जन मुक्त करन को जीव।
सब अज्ञान मिटाइ करि करत जीव तै शिव।।4।।
संतन की सेवा किये हरि के सेवा होय।
तातैं 'सुंदर' एक ही मति करि जानै दोय।।5।।
सहजो भज हरिनाम को छाँडि जगत का नेह।
अपना तो कोई है नहीं अपनी सगी न देह।।6।।
पातक उपपातक महा जेते पातक और।
नाम लेत तत्काल सब जरत खरत तेहि ठौर।।7।।
तिमिर गया रवि देखते कुमति गई गुरुज्ञान।
सुमति गई अति लोभ से भक्ति गई अभिमान।।8।।
जैसी प्रीति कुटुंब की तैसी गुरु से होय।
कहैं कबीर ता दास को पला न पकड़ै कोय।।9।।
जो कोय निंदे साधु को संकट आवे सोय।
नरक जाय जनमै मरै मक्ति कबहुँ नहीं होय।।10।।
बहुत पसारा मत करो कर थोड़े की आस।
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निराश।।11।।
कपटी मित्र न कीजिये पेट पैठि बुधि लेत।
आगे रह दिखाय के पीछे धक्का देत।।12।।
कोटि करम लागै रहै एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया जब आया अहंकार।।13।।
अपना तो कोई नहीं देखा ठोकि बजाय।
अपना अपना क्या करे मोह भरम लपटाय।।14।।
दीप कूँ झोला पवन है नर कूँ झोला नारि।
ज्ञानी झोला गर्व है कहै कबीर पुकारि।।15।।
दोष पराया देखि करि चले हंसत हंसत।
अपना याद न आवई जा का आदि न अंत।।16।।
लोभ मूल है दुःख को लोभ पाप को बाप।
लोभ फँसे जे मूढ़जन सहैं सदा संताप।।17।।
दरसन को तो साधु हो सुमिरन को गुरुनाम।।18।।
सुख देवे दुःख को हरे करे पाप का का अंत।
कह कबीर वे कब मिलें परम स्नेही संत।।19।।
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरु मिले अनंत फल कहे कबीर विचार।।20।।
आवत साधु न हरखिया जात न दीना रोय।
कहैं कबीर वा दास की मुक्ति कहाँ ते होय।।21।।
साधु मिले साहिब मिले अंतर रही न रेख।
मनसा वाचा कर्मणा साधु साहिब एक।।22।।
कोटि कोटि तीरथ करै कोटि कोटि करू धाम।
जब लग साधु न सेवई तब लग काचा काम।।23।।
अड़सठ तीरथ जो फिरै कोटि यज्ञ व्रत दान।
'सुंदर' दरसन साधु के तुलै नहीं कुछ आन।।24।।
मैं अपराधी जनम का नख सिख भरा विकार
तुम दाता दुःख भंजना मेरी करो सँभार।।25।।
सुरति करो मेरे साईयाँ हम हैं भवजल माँहि।
आप ही बह जाएँगे जो नहीं पकरो बाँहि।।26।।

ॐॐॐॐॐॐ

अजन्मा है अमर आत्मा

अजन्मा है अमर आत्मा


व्यर्थ चिंतित हो रहे हो,
व्यर्थ डरकर रो रहे हो।
अजन्मा है अमर आत्मा,
भय में जीवन खो रहे हो।।
जो हुआ अच्छा हुआ,
जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा...
यह नियम सच्चा ही है।
'गर भुला दो बोझ कल का,
आज तुम क्यों ढो रहे हो?
अजन्मा है...
हुई भूलें-भूलों का फिर,
आज पश्चाताप क्यों?
  कल् क्या होगा? अनिश्चित है,
आज फिर संताप क्यों?
जुट पड़ो कर्त्तव्य में तुम,
बाट किसकी जोह रहे हो?
अजन्मा है...
क्या गया, तुम रो पड़े?
तुम लाये क्या थे, खो दिया?
है हुआ क्या नष्ट तुमसे,
ऐसा क्या था खो दिया?
व्यर्थ ग्लानि से भरा मन,
आँसूओं से धो रहे हो।।
अजन्मा है....
ले के खाली हाथ आये,
जो लिया यहीं से लिया।
जो लिया नसीब से उसको,
जो दिया यहीं का दिया।
जानकर दस्तूर जग का,
क्यों परेशां हो रहे हो?
अजन्मा है...
जो तुम्हारा आज है,
कल वो ही था किसी और का।
होगा परसों जाने किसका,
यह नियम सरकार का।
मग्न ही अपना समझकर,
दुःखों को संजो रहे हो।
अजन्मा है.....
जिसको तुम मृत्यु समझते,
है वही जीवन तुम्हारा।
हो नियम जग का बदलना,
क्या पराया क्या तुम्हारा?
एक क्षण में कंगाल हो,
क्षण भर में धन से मोह रहे हो।।
अजन्म है....
मेरा-तेरा, बड़ा छोटा,
भेद ये मन से हटा दो।
सब तुम्हारे तुम सभी के,
फासले मन से हटा दो।
कितने जन्मों तक करोगे,
पाप कर तुम जो रहे हो।
अजन्मा है....
है किराये का मकान,
ना तुम हो इसके ना तुम्हारा।
पंच तत्त्वों का बना घर,
देह कुछ दिन का सहारा।
इस मकान में हो मुसाफिर,
इस कदर क्यों सो रहे हो?
अजन्मा है..
उठो ! अपने आपको,
भगवान को अर्पित करो।
अपनी चिंता, शोक और भय,
सब उसे अर्पित करो।
है वो ही उत्तम सहारा,
क्यों सहारा खो रहे हो?
अजन्मा है....
जब करो जो भी करो,
अर्पण करो भगवान को।
सर्व कर दो समर्पण,
त्यागकर अभिमान को।
मुक्ति का आनंद अनुभव,
सर्वथा क्यों खो रहे हो?
अजन्मा है....


Monday, September 20, 2010

Kaun kehte hain bhagwan aate nahi

Kaun Kehte Hain Bhagwan Aate Nahi


Download kaun kehte hain bhagwan aate nahin mp3 (right click-> save target as)

What I like the most about this bhajan is
1) The Sanskrit verses, though i dont understand what they mean but they are so soothing to ears.
2) This bhajan says that we can meet God for that we need to love him from the core of our heart

Lyrics ( Hindi, English )
||अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं Achyutam keshavam krishna damodaram
रामा नारायणं जानकी वल्लभं Raama narayanam jaanaki vallabham ||

कौन कहेते है भगवान आते नहीं Kaun kehete hai bhagwan aatey nahin – 2
तुम मीरा के जैसे बुलाते नहीं Tum meera ke jaise bulaate nahin – 2

||अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं Achyutam keshavam krishna damodaram
रामा नारायणं जानकी वल्लभं Raama narayanam jaanaki vallabham ||

कौन कहेते है भगवान खाते नहीं Kaun kehete hai bhagwan khatey nahin – 2
बेर शबरी के जैसे खिलते नहीं Ber Shabri ke jaise khilate nahin -2

||अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं Achyutam keshavam krishna damodaram
रामा नारायणं जानकी वल्लभं Raama narayanam jaanaki vallabham ||

कौन कहेते है भगवान सोते नहीं Kaun kehete hai bhagwan sotey nahin – 2
माँ यशोदा के जैसे सुलाते नहीं Maa yashoda ke jaise sulaate nahin – 2

||अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं Achyutam keshavam krishna damodaram
रामा नारायणं जानकी वल्लभं Raama narayanam jaanaki vallabham ||

कौन कहेते है भगवान नाचते नहीं Kaun kehete hai bhagwan naachte nahin – 2
गोपियों के तरह तुम नचाते नहीं Gopiyon ke tarah tum nachate nahin – 2

||अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं Achyutam keshavam krishna damodaram
रामा नारायणं जानकी वल्लभं Raama narayanam jaanaki vallabham ||

Monday, September 13, 2010

तुलसीदासजी के दोहे



तुलसी इस संसार में सबसे मिलियो धाई।
न जाने केहि रूप में नारायण मिल जाई॥


तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक
आदि अन्त निरबाहिवो जैसे नौ को अंक ।।

तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार।

आवत ही हर्षे नही नैनन नही सनेह!
तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह!!

तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर!
बसीकरण एक मंत्र है परिहरु बचन कठोर!!

बिना तेज के पुरूष अवशी अवज्ञा होय!
आगि बुझे ज्यों रख की आप छुवे सब कोय!!

तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक!
साहस सुकृति सुसत्याव्रत राम भरोसे एक!!

काम क्रोध मद लोभ की जो लौ मन मैं खान!
तौ लौ पंडित मूरखों तुलसी एक समान!!

राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार!
तुलसी भीतर बहारों जौ चाह्सी उजियार!!

नाम राम को अंक है , सब साधन है सून!
अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दस गून!!

प्रभु तरु पर, कपि डार पर ते, आपु समान!
तुलसी कहूँ न राम से, साहिब सील निदान!!

हरे चरहिं, तापाहं बरे, फरें पसारही हाथ!
तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ!!

तुलसी हरि अपमान तें होई अकाज समाज!
राज करत रज मिली गए सकल सकुल कुरुराज!!

राम दूरि माया बढ़ती , घटती जानि मन मांह !
भूरी होती रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छांह !!

राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि!
राग न रोष न दोष दुःख सुलभ पदारथ चारी!!

चित्रकूट के घाट पर भई संतान की भीर !
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुबीर!!

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए!
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए!!

नीच निचाई नही तजई, सज्जनहू के संग!
तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु बिष भय न भुजंग !!

ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहीं न दूसरी बात!
कौड़ी लागी लोभ बस करहिं बिप्र गुर बात !!

फोरहीं सिल लोढा, सदन लागें अदुक पहार !
कायर, क्रूर , कपूत, कलि घर घर सहस अहार !!

तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन!
अब तो दादुर बोलिहं हमें पूछिह कौन!!

मनि मानेक महेंगे किए सहेंगे तृण, जल, नाज!
तुलसी एते जानिए राम गरीब नेवाज!!

होई भले के अनभलो,होई दानी के सूम!
होई कपूत सपूत के ज्यों पावक मैं धूम!!

जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार!
संत हंस गुन गहहीं पथ परिहरी बारी निकारी!!

तुलसी इस संसार में. भांति भांति के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग॥

" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "

" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "

Wednesday, August 11, 2010

गुर्वष्टकम् -आद्य शंकराचार्य

गुर्वष्टकम्

-आद्य शंकराचार्य कृत गुर्वष्टकम्

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
1. यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
1. One’s body may be handsome, wife beautiful, fame, excellent and varied, and wealth like unto Mount Meru; but if one’s mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
2. सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?2. Wife, wealth, sons, grandsons, etc., all these; home, relations- the host of all these there may be; but if one’s mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 

षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
3. वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
3. The Vedas with their six auxiliaries and knowledge of sciences may be on one’s lips; one may have the gift of poesy; and may compose good prose and poetry; but if one’s mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence?
   
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
4. जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?
4. In other lands I am honored; in my country I am fortunate; in the ways of good conduct there is none that excels me-thus one may think, but if one’s mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
5. जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?
5. One’s feet may be adored constantly by hosts of emperors and kings of the world; but if one’s mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
6. दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?
6. My fame has spread in all quarters by virtue of generosity and prowess; all the things of the world are in my hands as a reward of these virtues; but if one’s mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 

भोगे योगे वा वाजिराजौ,
कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
7. जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?
7. Not in enjoyment, not in concentration, not in the multitudes of horses; nor in the face of the beloved, nor in wealth does the mind dwell; but if that mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 

अरण्ये वा स्वस्य गेहे कार्ये,
देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
8. जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?
8. Not in the forest, nor even in one’s own house, nor in what-is-to-be-accomplished, nor in the body, nor in what is invaluable does my mind dwell; but if my mind be not attached to the lotus feet of the Guru, what thence, what thence, what thence, what thence? 


अनर्घ्याणि रत्‍नादि मुक्‍तानि
सम्यक्समालिंगिता कामिनी यामिनीषु ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||
9. अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?


गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||||
10. जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है |
10. That virtuous person who reads this octad on the Guru, and whose mind is fixed on the sayings of the Guru- whether he be an ascetic, king, student, or householder, attains the desired goal, the state which is called Brahman


॥ इति श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम् गुर्वष्टकम् संपूर्णम् ॥