Tuesday, May 25, 2010

गुरु : एक सर्वोत्तम सौगात~~~

गुकार चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञान ग्रासकं ब्रह्म गुरुदेव संशय॥

अर्थात- 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्मरूप प्रकाश है वह गुरु है, इसमें कोई संशय नहीं है। गुरु ही दो नेत्र वाले साक्षात शिव हैं, दो हाथ वाले भगवान विष्णु हैं और एक मुख वाले ब्रह्माजी हैं।

मनुष्यों के लिए गुरु ही शिव है, गुरु ही देव, गुरु ही बांधव है और गुरु ही आत्मा। शिवजी की पूजारत हो या विष्णु की पूजारत हो, परंतु गुरुतत्व के ज्ञान से रहित हो तो सब व्यर्थ है।

'गुरु' यह दो अक्षरों वाला मंत्र सभी मंत्रों में श्रेष्ठ है, वेद और पुराणों का यह सार है। पुस्तकें पढ़-पढ़कर ज्ञानी बन जाने में कोई सार नहीं, गाड़ियाँ भरी जा सके, इतने ग्रंथों का अध्ययन करने से क्या लाभ?

यह ज्ञान तो मस्तिष्क में बोझा भरे उन ज्ञानियों के समान ही है, जिन्हें मंत्र तो बोलना आता है, परंतु उस मंत्र के महत्व को तो कोई 'ज्ञानी गुरु' ही बता सकता है। और जिस मानव को सच्चा गुरु मिल गया, वह मानव अनपढ़ होते हुए भी विद्वानों को पढ़ाता है, नासमझ होते हुए भी समझदारों को समझाने की क्षमता रखता है।

'गुरु' अर्थात ईश्वर या परम सत्ता से शिष्य को प्राप्त एक सर्वोत्तम सौगात है, एक ऐसी सौगात जिसमें सारे सद्गुणों का भंडार निहित है। अगर हमारा इतिहास देखें तो चाहे कोई भी महासंत, ऋषि, महर्षि, पीर-पैगंबर या अवतार हो- सभी के अपने कोई न कोई गुरु अवश्य मिलेंगे, जिन्होंने सफल मार्गदर्शन दे-देकर अपने शिष्यों को ज्ञान के शिखर तक पहुँचा दिया।

ऐसे ही गुरु वशिष्ठ, व्यास, वाल्मीकि और नानक हुए, जिनके शिष्य बनने के लिए भगवान ने धरती पर जन्म लिया और अपने गुरु के बताए मार्ग पर चलकर एक श्रेष्ठ शिष्य बनने की प्रेरणा मानव को दी। भागवत, रामायण आदि ग्रंथों में बड़े सुचारु रूप से गुरु के महत्व पर प्रकाश डाला है। गुरु ग्रंथ साहब में गुरु को साक्षात ईश्वर स्वरूप माना जाता है।

जीवन का सच्चा उद्देश्य समझना हो तो गुरु का सहयोग अत्यंत आवश्यक है। गुरु की कृपा असीम है, अनंत है और अवर्णनीय है। जहाँ गुरु की कृपा है, वहाँ सद्व्यवहार है, वहीं रिद्धि-सिद्धि है, वहीं अमरत्व है। गुरु आत्मदर्शन का दर्पण है शिष्य की प्रकृति के परिवर्तन और शुद्धिकरण की बूटी है।

सहजो कारज संसार को, गुरु बिन होता नाहीं।
हरि तो गुरु बिन क्या मिले, समझ ले मन माहीं॥

अर्थात संसार का कार्य भी मार्गदर्शक के बिना होता है, फिर वैदिक ज्ञान, ब्रह्मज्ञान पाना गुरु के बिना कैसे संभव है। इसलिए शास्त्र कहते हैं-
'तस्मात्गुरु अभिमुखात्गच्छेत्

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