दोहे
सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।1।।
देखा अपने आपको, मेरा दिल दीवाना हो गया।
ना छेड़ो मुझे यारों, मैं खुद पे मस्ताना हो गया हो।।2।।
चतुराई चूल्हे पड़ी, पूर पड़यो आचार।
तुलसी हरि के भजन बिन चारों वर्ण चमार।।3।।
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।4।।
सत्संग सेवा साधना, सत्पुरुषों का संग।
ये चारों करते तुरंत, मोह निशा का भंग।।5।।
यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
शिर दीजै सदगुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।6।।
कबीरा यह तन जात है, राख सके तो राख।
खाली हाथों वे गये, जिन्हें करोड़ों और लाख।।7।।
सब घट मेरा साँईया, खाली घट ना कोय।
बलिहारी वा घट की, जा घट प्रकट होय।।8।।
कबीरा कुआँ एक है, पनिहारी अनेक।
न्यारे न्यारे बर्तनों में, पानी एक का एक।।9।।
तुलसी जग में यूँ रहो, ज्यों रसना मुख माँही।
खाती घी और तेल नित, तो भी चिकनी नाँही।।10।।
पानी केरा बुलबुला, यह मानव की जात।
देखत ही छुप जात है, ज्यों तारा प्रभात।।11।।
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि कलेजा खाय।
वैद्य बिचारा क्या करे, कहाँ तक दवा खिलाय।।12।।
एक भूला दूजा भूला, भूला सब संसार।
बिन भूला एक गोरखा, जिसको गुरु का आधार।।13।।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटई जिमि आगी ॥
कबीरा यह जग निर्धना धनवंता नहीं कोई।
धनवंता तेहू जानिये जा को रामनाम धन होई।।
कबीरा इह जग आयके बहुत से कीने मीत।
जिन दिल बाँधा एक से वो सोये निश्चिन्त।।
वह संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती के बाढ़ किस काम की।।
रविदास रात न सोईये दिवस न लीजिए स्वाद।
निशदिन प्रभु को सुमरिए छोड़ सकल प्रतिवाद।।
उमा संत समागम सम और न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा उपजै नहीं गावहिं वेद पुरान।।
सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।
अकलमता कोई उपज्या गिने इन्द्र को रंक।।
कुंभ में जल जल में कुंभ बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जले समाना यह अचरज है ज्ञानी।।
तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ।
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज।।
मुझे वेद पुरान कुरान से क्या।
मुझे प्रभु का पाठ पढ़ा दे कोई।।
मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं।
मुझे प्रभु के गीत सुना दे कोई।।
जिसने दिया दर्द-ए-दिल उसका प्रभु भला करे।
आशिकों को वाजिब है कि यही फिर से दुआ करे।।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटई जिमि आगी ॥
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